''मंगलाष्टक स्त्रोत '' “Manglashtak Strot”
अरिहन्तो-भगवन्त इन्द्रमहिता सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा:,
आचार्या: जिनशासनोन्नतिकरा: पूज्या
उपाध्यायका:।
श्रीसिद्धान्त-सुपाठका:
मुनिवरा: रम्नत्रयाराधका:,
पंचैते परमेष्ठिन: प्रतिदिनं
कुर्वन्तु ते मंगलम्।।१।।
श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र
– मुकुटप्रद्योतरत्नप्रभा
भास्वत्पाद-नखेन्दव: प्रवचनाम्भोधीन्दव: स्थायिन:।
ये सर्वे जिन – सिद्ध –
सूर्यनुगतास्ते पाठका: साधव:
स्तुत्या योगिजनैश्च
पंचगुरव: कुर्वन्तु ते मंलम।।२।।
सम्यगदर्शन-बोध – वृत्तममलं
रत्नत्रयं पावनं,
मुक्तिश्री – नगराधिनाथ –
जिनपत्युक्तोपवर्गप्रद:।
धर्म-सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं
चैत्यालयं श्रयालयं,
प्रोक्तं च त्रिविधं
चतुर्विधममी कुर्वन्तु ते मंगलम् ।।३।।
नाभेयादि – जिन: प्रशस्तवदना:
ख्याताश्चतुर्विंशति:
श्रीमन्तो भरतेश्वर –
प्रभृतयो ये चिक्रणो द्वादश:।
ये विष्णु – प्रतिविष्णु –
लांगलधरा: सप्तोत्तराविंशति:
स्त्रैकाल्ये
प्रथितास्त्रिषष्टिपुरूषा: कुर्वन्तु ते मंगलम।।४।।
ये सर्वौषधिऋद्धय: सुतपसां
वृद्धिंगता: पंच ये,
ये चाष्टांगमहानिमित्त –
कुशलाश्चाष्टौ वियच्चारिणा:।
पंचज्ञानधरास्त्रयोडपि बलिनो
ये बुद्धि-ऋद्धीश्वरा:
सप्तैते सकलार्चिता मुनिवरा:
कुर्वन्तु ते मंगलम्।।५।।
ज्योतिर्व्यंतरभावनामरगृहे
मेरौ कुलाद्रौ स्थिता:,
जम्बूशाल्मलिचैत्यशाखिषु
तथा वक्षार – रूप्याद्रिषु।
इष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे
द्वीपे च नन्दीश्वरे,
शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहा:
कुर्वन्तु ते मंगलम्।।६।।
कैलासे वृषभस्य निर्वृति मही
वीरस्य पावापुरी,
चम्पायां वसुपूज्य –
सज्जिनपते: सम्मेदशैलेडर्हताम्।
शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरेनेमीश्वरास्यार्हतो,
निर्वाणावनय: प्रसिद्धविभवा:
कुर्वन्तु ते मंगलम्।।७।।
यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां
जन्माभिकोत्सवो,
यो जात: परिनिष्क्रमेण विभवो
य: केवलज्ञानभाक्।
य: कैवल्यपुर – प्रवेशमहिमा
सम्पादित: स्वर्गिभि:,
कल्याणानि च तानि पंच सततं
कुर्वन्तु ते मंगलम्।।८।।
सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते,
सम्पद्येत रसायनं विषमपि
प्रीतिं विधत्ते रिपु:।
देवायान्ति वशं प्रसन्न-मनस:
किं वा बहु बूमहे,
धर्मादेव नभोडपि वर्षति नगै:
कुर्वन्तु ते मंगलम्।।९।।
इत्थं श्री जिन-मंगलाष्टकमिदं
सौभाग्य-सम्पत्प्रदं,
कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणामुष:।
ये श्रृण्वन्ति पठन्ति तैश्च
सुजनै – धर्मार्थकामान्विता,
लक्ष्मीराश्रयते व्यापारहिता
निर्वाणलक्ष्मीरपि।। १०।।
जय
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