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Vinay Path ।। विनय पाठ ।। Ih vidhi Thadho hoy ke इह विधि ठाड़ो होय के प्रथम पढ़े जो पाठ


    !! विनय पाठ !!

इह  विधि ठाड़ो  होय केप्रथम पढ़ै  जो पाठ

धन्य जिनेश्वर देव तुमनाशे कर्म जु आठ।।1।।

 अनंत चतुष्टय के धनीतुम ही हो सिरताज

  मुक्ति- वधु के कन्‍त तुमतीन भवन के राज।।2।।

 तिंहु  जग की पीड़ा हरनभवदधि-शोषणहार

ज्ञायक हो तुम विश्‍व के, शिव सुख के करतार।।3।।

हरता अघ अंधियार के, करता धर्म प्रकाश।

 थिरता पद दातार हो, धरता निजगुण रास।।4।।

धर्मामृत उर जलधिसों, ज्ञान-भानु तुम रूप।

 तुमरे चरण सरोज को, नावत तिंहु जग भूप।।5।।

मैं बंदौ जिन देव को, कर अति निर्मल भाव।

कर्म बंध के छेदने, और न कछू उपाव।।6।।

भविजन को भव कूपतैं, तुम ही काढ़न-हार।

 दीन दयाल अनाथ पति, आतम गुण भण्‍डार।।7।।

चिदानंद निर्मल कियो, धोय कर्म रज मैल।

 सरल करी या जगत में, भविजन को शिवगैल।।8।।

तुम पद पंकज पूजतैं, विघ्‍न रोग टर जाय।

शत्रु मित्रता को धरै, विष निर्विषता थाय।।9।।

चक्री खगधर इंद्र पद, मिलें आपतैं आप।

अनुक्रमकर शिवपद लहें, नेम सकल हनि पाप।।10।।

तुम बिन मैं व्‍याकुल भयो, जैसे जब बिन मीन।

जन्‍म जरा मेरी हरो, करो मोहि स्‍वाधीन।।11।।

पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव।

अंजन से तारे कुधे, जय! जय! जय! जिनदेव।।12।।

थकी नाव भवदधि विषै, तुम प्रभु पार करेव।

खेवटिया तुम हो प्रभु, जय! जय! जय! जिनदेव।।13।।

रागसहित जग में रूल्‍यो, मिले सगारी देव।

वीतराग भेंटो अबै, मेटो राग कुटेव।।14।।

कित निगोद कित नारकी, कित तिर्यंच अज्ञान।

आज धन्‍य मानुष भयो, पायो जिनवर थान।।15।।

तुमको पूजें सुरपती, अहिपति नरपति देव।

धन्‍य भाग्‍य मेरो भयो, करन लग्‍यो तुम सेव।।16।।

अशरण के तुम शरण हो, निराधार आधार।

मैं डूबत भवसिंधु में, खेओ लगाओ पार।।17।।

इन्‍द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान।

अपनो विरद निहार के, कीजै आप समान।।18।।

तुमरी नेक सुदृष्टितें, जग उतरत है पार।

हां हां डूबो जात हौं, नेक निहार निकार।।19।।

जो मैं कहहूँ और सो, तो न मिटे उर-झार।

मेरी तो तोसों बनी, तातैं करौं पुकार।।20।।

वन्‍दौं पांचों परमगुरू, सुरगुरू वंदत जास।

विघनहरन मंगलकरन, पूरन परम प्रकाश।।21।।

चौबीसों जिन पद नमौं, नमौं शारदा माय।

शिवमग साधक साधु नमि, रच्‍यो पाठ सुखदाय।।22।।

मंगल मूर्ति परम पद, पंच धरौं नित ध्‍यान।

हरो अमंगल विश्‍व का, मंगलमय भगवान।।23।।

मंगल जिनवर पद नमौं, मंगल अरिहंत देव।

मंगलकारी सिद्ध पद, सो वन्‍दौं स्‍वयमेव।।24।।

मंगल आचारज मुनि, मंगल गुरू उवझाय।

सर्व साधु मंगल करो, वन्‍दौं मन वच काय।।25।।

मंगल सरस्‍वती मातका, मंगल जिनवर धर्म।

मंगलमय मंगल करो, हरो असाता कर्म।।26।।

या विधि मंगल से सदा, जग में मंगल होत।

मंगल नाथूराम यह, भव सागर दृढ़ पोत।।27।।

(सोरठा)

पठन करूं श्री आदि का, अंत नाम महावीर।

तीर्थंकर चौबीस जिन, तिन्‍हें नवाऊं शीश।।

 

अर्घ:- ऊँ ह्रीं श्रीं पुष्‍पांजली क्षिपामी

 


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