।। श्री 1008 भगवान अजित नाथ चालीसा ।।
श्री आदिनाथ को शीश नवाकर, माता सरस्वती को ध्याय।
शुरू करूँ श्री अजितनाथ का, चालीसा स्व-पर-सुखदाय।।1।।
जय श्री अजितनाथ जिनराज, पावन चिह्न धरे ‘’गजराज’’।
नगर अयोध्या करते राज, जितशत्रु नामक महाराज।।2।।
विजयसेना उनकी महरानी, देखें सोलह स्वप्न
ललामी।
दिव्य विमान विजय से चयकर, जननी उदर बसे प्रभु आकर।।3।।
शुक्ला दशमी माघ मास की, जन्म जयन्ती अजित नाथ
की।
इन्द्र प्रभु को शीशधार कर, गए सुमेरू हर्षित होकर।।4।।
नीर-क्षीर सागर से लाकर, न्हवन करें भक्ति में
भरकर।
वस्त्राभूषण दिव्य पहनाए, वापस लौट आयोध्या आए।।5।।
अजित नाथ की शोभा न्यारी, वर्ण-स्वर्ण सम कान्तिधारी।
बीता बचपन जब हितकारी, हुआ ब्याह तब मंगलकारी।।6।।
कर्मबंध नहीं हो भोगों में, अन्तदृष्टि थी योगों
में।
चंचल चपला देखी नभ में, हुआ वैराग्य निरन्तर
मन में।।7।।
राजपाट निज सुत को देकर, हुए दिगम्बर दीक्षा
लेकर।
छ: दिन बाद हुआ आहार, करे श्रेष्ठि ब्रह्मा
सत्कार।।8।।
किये पंच अचरज देवों ने, पुण्योपार्जन किया सभी
ने।
बारह वर्ष तपस्या कीनी, दिव्यज्ञान की सिद्धि
नवीनी।।9।।
धनपति ने इन्द्राजा पाकर, रच दिया समोशरण हर्षाकर।
सभा विशाल लगी जिनवर की, दिव्यध्वनि खिरती प्रभुवर
की।।10।।
वाद-विवाद मिटाने हेतु, अनेकांत का बॉंधा सेतु।
हैं सापेक्ष यहां सब तत्व, अन्योन्याश्रित है
उन सत्व।।11।।
सब जीवों में है जो आतम, वे भी हो सकते शुद्धात्म।
ध्यान अग्नि का ताप मिले जब, केवल ज्ञान की ज्योति
जले तब।।12।।
मोक्ष मार्ग तो बहुत सरल है, लेकिन राही हुए विरल
हैं।
हीरा तो सब ले नहीं पावे, सबजी भाजी भीड़ धरावे।।13।।
दिव्यध्वनि सुनकर जिनवर की, खिली कली जन-जन के मन
की।
प्राप्ति कर सम्यग्दर्शन की, बगिया महकी भव्यजनों
की ।।14।।
हिंसक पशु भी समता धारें, जन्म-जन्म का वैर निवारें।
पूर्ण प्रभावना हुई धर्म की, भावना शुद्ध हुई भविजन
की।।15।।
दूर-दूर तक हुआ विहार, सदाचार का हुआ प्रचार।
एक माह की उम्र रही जब, गए शिखर सम्मेद प्रभु
तब।।16।।
अखण्ड मौन मुद्रा की धारण, कर्म अघाती हेतु निवारण।
शुक्ल ध्यान हुआ प्रताप, लोक शिखर पर पहुँचे आप।।17।।
‘’सिद्धवर कूट’’
की भारी महिमा, गाते सब प्रभु के गुण-गरिमा।
(सोरठा)
विजित किए श्री अजित ने, अष्ट कर्म बलवान।
निहित आत्मगुण अमित है, अरूणा सुख की खान।।
।। जाप्य:- ऊँ ह्रीं अर्हं
श्री अजितनाथाय नम: ।।
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