शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करूं प्रणाम,
उपाध्याय, आचार्य का ले सुखकारी नाम।
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मंदिर सुखकार,
अहिच्छत्र और पार्श्व को, मन मंदिर में धार।।
(चौपाई)
पार्श्वनाथ जगत हितकारी, हो स्वामी
तुम व्रत के धारी।
सुर नर असुर करें तुम सेवा, तुम हो
देवन के देवा।।
तुमसे करम शत्रु भी हारा, तुम कीना
जग का निस्तारा।
अश्वसैन के राजदुलारे, वामा की आंखों
के तारे।।
काशी जी के स्वामी कहाये, सारी परजा
मौज उड़ाए।
इक दिन सब मित्रों के लेके, सैर करन
को वन में पहुंचे।।
हाथी पर कसकर अम्बारी, इस जंगल में गई
सवारी।
एक तपस्वी देख वहां पर, उससे बोल वचन सुनाकर तपसी।।
तुम क्यों पाप कमाते, इस लक्कड़ में जीव जलाते।
तपसी
तभी कुदाल उठाया, उस लक्कड़ को चीर गिराया।।
निकले
नाग-नागनी कारे, मरने के थे
निकट बिचारे।
रहम प्रभु
के दिल में आया, तभी मंत्र नवकार सुनाया।।
मरकर
वो पाताल सिधाए, पद्मावती धरणेन्द्र कहाए।
तपसी
मरकर देव कहाया, नाम कमठ ग्रंथों में आया।।
एक समय
श्री पारस स्वामी, राज छोड़कर वन ठानी।
तप करते
थे ध्यान लगाए, इक कमठ वहां पर आए।।
फौरन
ही प्रभु को पहिचाना, बदला लेना दिल में ठाना।
बहुत
अधिक बारिश बरसाई, बादल गरजे बिजली गिराई।।
बहुत
अधिक पत्थर बरसाए, स्वामी तन को नहीं हिलाए।
पद्मावती
धरणेन्द्र भी आए, प्रभु की सेवा चित लाए।।
पद्मावती
ने फन फैलाया, उस पर स्वामी को बैठाया।
धरणेन्द्र
ने फन फैलाया, प्रभु के सिर पर छत्र बनाया।
कर्मनाश
प्रभु ज्ञान उपाया, समवशरण देवेन्द्र रचाया।।
यही जगह
अहिच्छत्र कहाए, पात्र केशरी जहां पर आए।
वह पण्डित ब्राह्मण विद्वाना, जिसको जाने सकल जहाना।।
शिष्य
पांच सौ संग में आए, सब कट्टर ब्राह्मण बतलाए।
पार्श्वनाथ
का दर्शन पाया, सबने जैन धर्म अपनाया।।
अहिच्छत्र
थी सुन्दर नगरी, जहां सुखी थी परजा सगरी।
राजा
श्री वसुपाल कहाए, वो इक जिन मंदिर बनवाए।।
प्रतिमा
पर पालिश करवाया, फौरन इक मिस्त्री बुलवाया।
वह मिस्त्री
मास खाता था, इससे पालिश गिर जाता था।।
मुनि
ने उसे उपाय बताया, पारस दर्शन व्रत दिलवाया।
मिस्त्री
ने व्रत पालन कीना, फौरन ही रंग चढ़ा नवीना।।
गदर सतावन
का किस्सा है, इक माली का यों लिक्खा है।
माली
इक प्रतिमा को लेकर, झट छुप गया कुए के अंदर।।
उस पानी
का अतिशय भारी, दूर होय सारी बीमारी।।
जो अहिच्छत्र
हृदय से ध्यावे, सो नर उत्तम पदवी पावे।
पुत्र
संपदा की बढ़ती हो, पापों की इकदम घटती हो।।
है तहसील
आंवला भारी, स्टेशन पर मिले सवारी।
रामनगर
इक ग्राम बराबर, जिसको जाने सब नारी-नर।।
चालीसे
को ‘’चन्द्र’’ बनाए,
हाथ जोड़कर शीश नवाए।
(सोरठा)
नित चालीस ही बार, पाठ करें चालीस
दिन,
खेय सुगंध अपार, अहिच्छत्र में
आय के।
होय कुबेर समान, जन्म
दरिद्री होय जो
जिसके नहीं संतान, नाम वंश जग
में चले।।
जय जिनेन्द्र,
आप सभी से निवेदन है कि मेरी इस पोस्ट को देखें ताकि मेरा अधिक से अधिक भगवान की भक्ति में लीन ऋद्धालुओं को जिनवाणी मॉं की कृतियां पढ़ने को इंटरनेट के माध्यम से मिल सकें। मैं प्रयास करूंगा कि जैन धर्म से संबंधित अधिक से अधिक विषय वस्तु इस ब्लॉग पर आप सभी के लिए उपलब्ध करा सकूं।
आप सभी से निवेदन है कि अपने क्षेत्र में हो रहे जैन धर्म के विभिन्न कार्यक्रमों की आप विस्तृत जानकारी/सूचना तैयार करें हमें ई-मेल के माध्यम से भेजें, ताकि आपके द्वारा भेजी गई वे समस्तय कार्यक्रम की सूचना समस्त भारवतर्ष में मेरे इस ब्लॉग के द्वारा पहुँचाई जा सकें, और सम्पूर्ण भारतवर्ष इसका लाभ प्राप्त कर सके।
आप यदि मेरे साथ जुड़कर कार्य करना इस धार्मिक कार्य में सहयोग करना चाहते हैं, तो ई-मेल के माध्यम से सम्पर्क करें और आपके पास यदि जैन धर्म के प्रवचन, विधान, पंचकल्याणक, गुरू वंदना, गुरू भक्ति, प्रवचन आदि की वीडियो एवं फोटो भी सम्पर्क करके भेज सकते हैं, जिससे सम्पूर्ण भारतवर्ष में उसे इसके माध्मय से जन-जन में पहुँचाया जा सके।
धन्यवाद
0 Comments